-विवियन फर्नांडीज़
विकास के कई पैमानों पर बिहार देश के दूसरे हिस्सों से पीछे हैं लेकिन मक्के के उत्पादन में बिहार का प्रदर्शन ज़बरदस्त है.
अक्टूबर में बोई जाने वाली मक्के की रबी फ़सल का औसतन उत्पादन बिहार में तीन टन प्रति हेक्टेयर है. हालांकि यह तमिलनाडु और आंध्रप्रदेश के प्रति हेक्टेयर औसत उत्पादन से कम है.
लेकिन औसत की बात करने पर आकड़ों से जुड़े कई दूसरे पहलुओं पर बात नहीं हो पाती है.
उदाहरण के तौर पर समस्तीपुर ज़िले में प्रति हेक्टेयर साढ़े सात से नौ टन तक मक्का का उत्पादन होता है. यह सच है कि रबी वाले मक्के की फ़सल खरीफ मक्के की फ़सल से अधिक इसलिए होती है क्योंकि रबी वाले फल को कीट-पतंगों और बीमारी से कम ख़तरा होता है.
बिहार में मानसून में आने वाली बाढ़ से जमा हुई कीचड़ का भी फायदा रबी फ़सल को मिलता है लेकिन अधिक उत्पादन के और भी वजहें हैं.
छात्र सुधांशु कुमार समस्तीपुर के नायनागार ग्राम पंचायत के मुखिया हैं. वो कहते हैं, “मेरी नज़र में पहली वजह है बीज.”
सुधांशु कुमार के पिता पहले ज़मींदार हुआ करते थे. उन्होंने बताया, “हाइब्रिड बीज की वजह से फसल के उत्पादन में गज़ब की बढ़ोत्तरी हुई है.”
उत्पादकता के लिहाज़ से तकनीक का इस्तेमाल महत्वपूर्ण है.
कुछ कृषि अर्थशास्त्रियों के अध्ययन से इस बात का पता चलता है कि खेती अनुसंधान पर होने वाले ख़र्च का 1990 के दशक में सबसे ज्यादा फ़ायदा दिखता है.
इसका असर अभी भी देखा जा सकता है. इसका एक उदाहरण कपास की खेती है.
आनुवांशिक रूप से संशोधित (जीएम) बीटी कॉटन बीज ने भारत को 2002 में कपास के आयातक देश से दुनिया में कपास का दूसरा सबसे बड़ा निर्यातक और सबसे बड़ा उत्पादक देश बना दिया.
बीटी कॉटन बीज नुक़सानदायक कीटों के ख़िलाफ़ खुद ही लड़ने की क्षमता ख़ुद से तैयार कर लेता है.
सुधांशु कुमार के पड़ोसी संदीपन सुमन के पास पांच एकड़ ज़मीन है. उन्होंने मेरठ यूनिवर्सिटी से एगरीकल्चर में बीएससी किया है.
वो सफ़ेद मक्के की खेती करते हैं जो स्वादिष्ट होता है लेकिन पीले मक्के की तरह पोषक तत्वों से भरपूर नहीं होता, क्योंकि इसमें बीटा कैरोटीन और विटामिन ए नहीं होता है.
सुमन पहले पीले मक्के की खेती किया करते थे. उन्हें कहा गया कि इतनी मेहनत में वो सफेद मक्के की दोगुना पैदावार कर सकते हैं.
सुमन अब ड्यूपॉन्ट पायनियर के हाइब्रिड बीज का इस्तेमाल करते हैं क्योंकि उन्हें लगा कि इसमें कम नमी की ज़रूरत पड़ती है.
वो ये भी बताते हैं कि हाइब्रिड बीज का इस्तेमाल हम उसे जमा करके नहीं कर सकते हैं इसलिए उसे हर साल खरीदना होता है.
हाइब्रिड बीजों का विरोध करने वाले कार्यकर्ताओं का मानना है कि इससे किसान निजी कंपनियों के ग़ुलाम हो जाते हैं. लेकिन किसान अधिक पैदावार के सामने इसकी परवाह नहीं करते.
निश्चित तौर पर हाईटेक बीज से ज्यादा पैदावार पाने के लिए किसानों को कुछ नियमों का पालन करना पड़ता है.
सिर्फ़ बीज बोकर छोड़ देने से काम नहीं चलता इसे निश्चित करना पड़ता है कि सभी बीज अंकुरित हुए या नहीं. टूटे बीजों को हटाना होता है. चूहों से बचाने के उपाय करने होते हैं.
बीज बोने के सही तरीकों और दूरी का ख़्याल रखना होता है. संक्षेप में कहें तो किसानों को खेती की वैज्ञानिक पद्धति का पालन करना होता है.
नयानगर की ही बेबी कुमारी के पास पांच एकड़ से थोड़ी ज्यादा ज़मीन है. उन्होंने गर्मी बढ़ने की वजह से अपने ज़मीन के कुछ हिस्सों में धान की बजाए मक्के की खेती शुरू कर दी.
धान की खेती के लिए अधिक पानी की जरूरत पड़ती है. जलवायु परिवर्तन की वजह से खेती के पुराने तरीक़े पर असर पड़ रहा है. पिछले साल बिहार में सामान्य से 28 फ़ीसदी कम बारिश हुई थी.
मक्के की खेती में कम पानी की ज़रूरत पड़ती है. यह सूरज की गर्मी का भी सही तरीक़े से इस्तेमाल करता है.
बेबी कुमारी जैसे किसानों को अगर फायदा दिख रहा हो तो वो तेज़ी से तकनीक को खेती में अपना लेते हैं.
भूजल स्तर के नीचे जाने के कारण पंजाब में ख़रीफ़ फ़सल की खेती करने वाले किसानों को मक्के की खेती करने के लिए बढ़ावा दिया जा रहा है.
लेकिन किसान इसके लिए तैयार नज़र नहीं आ रहे हैं क्योंकि सरकार जितनी आसानी से चावल और गेंहू को ख़रीदने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य और अन्य इंतज़ाम करती है, उतना मक्के को लेकर नहीं होता.
लेकिन बिहार के किसान मक्के को बेचने के लिए सरकार पर निर्भर नहीं हैं. स्टार्च और पोल्ट्री उद्योग की ओर से पहले से ही मक्के की मांग होती रही है.
मक्के की रबी फ़सल बाज़ार में उस वक्त पहुंचती है जब बाज़ार में आपूर्ति कम होती है.
जीडीपी की बढ़ोत्तरी में मक्के जैसी फ़सल का काफी योगदान है क्योंकि बदलते हुए हालात में आय बढ़ने के साथ बदलते खान-पान के साथ मक्का फिट बैठता है.
सरकार फूड प्रोसेसिंग कंपनियों को सीधे किसानों से मक्का खरीदने की इजाज़त देकर मक्के की खेती को बढ़ावा दे सकती है. लेकिन कई राज्य सरकारें ऐसा नहीं करती हैं.
1960 में बने मार्केटिंग क़ानून में बदलाव की जरूरत है. जब किसानों की आमदनी सुनिश्चित होगी तभी भारतीय कृषि में स्थायित्व आ पाएगा.
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