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दुःख तेरे देश इतने निंदिया न आये रे | एक कविता बिहार से

  • PatnaBeats
  • Dec 1, 2023
  • 2 min read

यह सच है, बॉलीवुड का एक युग संगीतकारों और गीतकारों के नाम रहा है| यह भी उतना ही सच है कि नये युग के गीत की तुलना हमेशा पुराने युग से की जाती रही है| नये कलमकारों में बहुत कम ऐसे हैं जिनकी कलम में प्राकृतिक निकटता, मधुरता और सच्चाई की झलक तो है ही साथ ही प्रसिद्धि की चमक भी है|


एक अरसे बाद कोई फिल्म आती है, देसी कहानी के साथ| कब इसके गाने लोगों की प्लेलिस्ट से निकल कर जुबान पर चढ़ जाते हैं, किसी को खबर नहीं होती| खबर किसी को इस बात की भी नहीं लगती कि इन गानों का संगीत जितना खुबसूरत था, उतनी की खूबसूरती से इनके शब्दों को भी पिरोया गया था| हाँ, खबर इसकी भी नहीं लगी कि ये शब्द पिरोने वाला शख्स बिहार से है|


जी! हम बात कर रहे हैं, तनु वेड्स मनु, तनु वेड्स मनु रिटर्न्स और ऊँगा जैसी फिल्मों में गीतकार की भूमिका अदा करने वाले कवि राज शेखर की| श्री शेखर जी बिहार के मधेपुरा जिले से हैं| 22 सितम्बर 1980 ई० को जन्में राजशेखर जी की शिक्षा-दीक्षा दिल्ली विश्वविद्यालय से हुई| इनकी लेखनी में सीधे-सादे देसी शब्दों की महक है और प्राकृतिक सौन्दर्य का रस भी| राज जी खुद भी कहते हैं, “जब गाँव जाता हूँ, वहाँ से कुछ शब्द उठा लाता हूँ”| ‘कितनी दफे दिल ने कहा’ हो, ‘रंगरेज मेरे’ या फिर ‘घनी बावरी’ हर गाने में सीधी और सच्ची बात|


तो पटनाबीट्स के ‘एक कविता बिहार से’ से आज जुड़ रहे हैं कवि राजशेखर अपनी एक कविता ‘जंतर-मंतर पे लोरी’ के साथ, जो उन्होंने जंतर-मंतर पर हक की लड़ाई लड़ने वालों की नींद के नाम की है| मगर उससे पहले, नियमगिरि पर्वत के लिए लिखी गयी इनकी एक मशहूर कविता ‘नियमराजा’ से कुछ अंश पेश है|


“हो देव! हो देव!

बस एक बात रहे,

नियमगिरि साथ रहे,

जंगल के माथे पे

उसके दोनों हाथ रहे|

टेसू-पलाश फूले,

लाले-लाले लहर-लहर,

मांदल पर थाप पड़े,

धिनिक-धिनिक, थपड-थपड|

दिमसा का नाच चले,

तनिक-तनिक संवर-संवर,

गाँव-गाँव-गाँव रहे,

दूर रहे शहर-शहर|

वर्दी वाले भाई,

तुम आना इधर,

ठहर-ठहर-ठहर-ठहर|

माटी के कुइया-मुइया

जंगल के हइया-हुइया

कुइया-मुइया, हइया-हुइया

कुइया-मुइया हम|”


जंतर-मंतर पे लोरी


जुलुम तेरा हाय रे,

बढ़ता ही जाए रे,

दुःख तेरे देश इतने

निंदिया न आये रे|


भूखे-भूखे पेट अपने,

निंदिया न आये रे|

दरद से ये देह टूटे

निंदिया न आये रे|


इस तकलीफदेह रात का अँधेरा,

ये शोरोगुल, ये उदासियाँ,

तुम्हारे पीठ पर के नील,

कहो तो इसे साझा कर लें?

और अब सो जाओ थोड़ी देर|

एहसान क्या!


जब फूटेगा भोर,

जब बदलेंगे दिन,

वो भी बाँट लेंगे,

तब कर लेंगे न हिसाब,

सोने-जागने का|


भारी बूटों की धमक से,

झूठे वादों की चमक से,

मजलूमों की कसक से,

निंदिया न आये रे|


खेतों से उठती महक ये,

चाँद-तारे और धमक ये,

सूरज भी कहता फलक से,

अब तो सो जा रे|

अब सो जा साथी रे|



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