top of page

इन युवाओं की सुनें तो हम बचा सकते हैं बिहार के बच्चों को

  • PatnaBeats
  • Nov 24, 2023
  • 7 min read

Updated: Dec 1, 2023


इस साल चमकी बुखार यानी की एईएस का कहर एक बार फिर लौट आया. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस बुखार से 2019 में 180 से अधिक बच्चों की मौत हो गयी. बिहार बीते करीब तीन दशकों से चमकी बुखार यानी की एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम (एईएस) का सामना कर रहा है. बिहार के तिरहुत और गया प्रमंडल का इलाका इससे सबसे अधिक प्रभावित माना जाता है.

चिकित्सा विज्ञान के लिए ‘अबूझ’ बनी हुई इस बिमारी से अब तक बिहार के हज़ारों नौनिहाल असमय काल के गाल में समा चुके हैं. चिकित्सा विज्ञान के लिए यह बीमारी भले ‘अबूझ’ बनी हुई हुई हो लेकिन यह सभी मानते हैं कि गरीबी और सामाजिक पिछड़ेपन से इस बीमारी का सीधा सम्बन्ध है. पौष्टिकता और बीमारी का भी इससे सीधा रिश्ता है. इससे प्रभावित होने वालों में सबसे ज्यादा तादाद गरीब, पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक समुदाय के बच्चों की होती है. इतना ही नहीं इस बीमारी के प्रति जागरूकता की कमी भी बच्चों के लिए मौत बन कर सामने आती है.

इस तथ्य को चमकी निवारण अभियान के युवा समूह के सर्वेक्षण के नतीज़ों ने फिर से साबित किया है जिस सर्वेक्षण पर आधारित रिपोर्ट बाल दिवस से एक दिन पहले 13 नवंबर को मुजफ्फरपुर में एक कार्यक्रम में जारी की गई. रिपोर्ट के अनुसार इस साल चमकी बुखार से प्रभावित होने वालों में 97.8 प्रतिशत गरीब परिवारों से हैं. इन परिवारों की मासिक आय दस हजार से भी कम है. रिपोर्ट आगे यह भी बताती है कि 2019 में चमकी बुखार से पीड़ित बच्चों में से 96.5 फीसदी दलित, पिछड़े-अति पिछड़े वर्ग और अल्पसंख्यक समुदाय के हैं.

वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक जेपी सेनानी अनिल प्रकाश इस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में मौजूद थे. इस सर्वेक्षण को पूरा करने में युवाओं सहित कई लोगों ने आगे बढ़ कर अपना योगदान दिया जिनमें अमन कुमार झा, अनमोल कुमार, आदर्श कुमार, आशिक गौतम, कनक भारती, पप्पू कुमार, पुष्यमित्र, पूजा यदुवंशी, प्रशांत राज, फरमूद अंसारी, बिरजू कुमार, मनीष कायस्थ, मुकेश कुमार, मुकेश सिंह, रजनीश, राहुल कुमार, विष्णु नारायण, शांभवी, सत्यम कुमार झा, सोमू आनंद, हृषिकेश शर्मा शामिल थे. साथ ही इसे अंजाम तक पहुंचाने में अविनाश कुमार, इश्तेयाक अहमद, अनुज, पवन कुमार, आकांक्षा, प्रशांत विप्लवी, आनंद दत्ता, अविनाश गौतम ने अपना बहुमूल्य सहयोग दिया. स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच का हाल बुरा

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस साल मुजफ्फरपुर और इसके आस-पास के जिलों के 600 से अधिक बच्चे एईएस से पीड़ित हुए थे. युवा समूह ऐसे 200 से अधिक बच्चों के परिवारों तक पहुंची. सर्वेक्षण का इतना बड़ा सैंपल साइज़ इस महत्वपूर्ण अकादमिक किस्म के हस्तक्षेप और इससे सामने आए नतीजों को बहुत ही विश्वसनीय बना देता है. साथ ही इस सर्वेक्षण से जुटाए गए आंकड़ों का विश्लेषण प्रैक्सिस, पटना ने किया है जो कि पार्टिसिपेटरी रिसर्च से जुड़ी भारत की एक जानी-मानी संस्था है.


रिपोर्ट जारी करते हुए वरिष्ठ पत्रकार पुष्यमित्र ने कहा, “बाल दिवस के मौके पर यह रिपोर्ट जारी करने का मकसद यह है कि जब इस अहम दिन आम लोग और मीडिया बात करें तो वे चमकी बुखार के बारे में भी बात करें. वे इस बीमारी से हर साल होने वाली दर्जनों बच्चों की मौत के पीछे के वजहों को जानकर उसकी बात करें और इन कारणों को दूर करने की मांग सरकार से करें.”

इस रिपोर्ट ने सरकारी सुविधाओं तक गरीब और वंचित तबके की पहुँच की बहुत ही चिंताजनक स्थिति को सामने रखा है. इससे कई ऐसे तथ्य सामने आए हैं जो इन सुविधाओं से जुड़े गंभीर पहलुओं को सामने लाते हैं और जिन पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है.

रिपोर्ट बताता है कि बीमार बच्चों में से सिर्फ 58.1 फीसदी बच्चों को ही जेई का टीका लगा था. केवल 59 फीसदी बच्चों के घर में टीकाकरण का कार्ड था, शेष बच्चों के घर में यह कार्ड नहीं था. बीमार बच्चों के 81.5 फीसदी परिवार के पास आयुष्मान कार्ड उपलब्ध नहीं था. किसी भी परिवार ने इस बीमारी में इस कार्ड की सुविधा का इस्तेमाल नहीं किया.

दूसरी ओर पीड़ित बच्चों के 76.2 फीसदी परिवार वालों को चमकी बुखार के बारे में पहले से कोई जानकारी नहीं थी. 70.5 फीसदी परिवारों ने इस बात से साफ-साफ इनकार किया कि उन्हें किसी आंगनबाड़ी कार्यकर्ता, आशा या अन्य सरकारी कर्मचारी ने चमकी बुखार के बारे में पूर्व जानकारी दी थी.'


वहीं बीमार बच्चों के परिजनों के मुताबिक सिर्फ 57.6 फीसदी आंगनबाड़ी केंद्रों में ही नियमित पोषाहार का वितरण होता है. जबकि बीमारी की स्थिति में अस्पताल पहुंचने में सिर्फ 9.7 फीसदी परिवारों ने ही सरकारी एंबुलेस की सुविधा हासिल की. अस्पताल से लौटते वक्त 27.8 फीसदी बच्चों को ही यह सुविधा हासिल हुई.


इस तरह गाँव-गाँव पहुंचे युवा

इस साल जून में जब एईएस का कहर हर बीतते दिन के साथ बढ़ने लगा तो ऐसे में बिहार के कुछ युवाओं ने तय किया कि वे अपने स्तर पर जागरूकता अभियान चलायेंगे. 16 जून से यह अभियान शुरू हुआ और चार-पांच युवाओं से शुरू हुआ यह अभियान बाद में दो सौ युवाओं तक पहुंच गया और इन युवाओं ने 70-80 गांवों में जाकर लोगों को चमकी बुखार के लक्षण और बुखार आने पर क्या करना चाहिए इस बारे में जानकारी दी और थर्मामीटर एवं ओरआरएस घोल जैसे इस रोग से लड़ने से काम आने वाले कुछ मूलभूत चीज़ों का वितरण शुरू किया. इन युवाओं ने स्वास्थ्य विभाग के एसओपी को पढ़ कर ही लोगों को जागरूक किया. इस दौरान पूरे देश में चमकी बुखार से होने वाली मौतें बहस में आ गयीं.

जून के आखिर में जब मानसून उतरा तो चमकी बुखार का असर कम होने लगा. इसके कुछ दिनों बाद इस युवा समूह ने तय किया वे चमकी बुखार के कारणों का पता लगाने के लिए शोध करेंगे. इस रोग के सामाजिक-आर्थिक आधार और मूल कारणों को समझने की कोशिश करेंगे. ऐसे में 10 जुलाई को एक बार फिर मुजफ्फरपुर में टीम जुटी और तय हुआ कि उन सभी परिवारों तक पहुंचने की कोशिश की जायेगी, जिनके बच्चे इस साल चमकी बुखार का शिकार हुए थे.


सर्वेक्षण के लिए एक विस्तृत प्रश्नावली तैयार की गई, जिससे कि न सिर्फ चमकी बुखार के पीड़ित बच्चों के परिवारों की आर्थिक सामाजिक स्थिति समझ में आ जाये, बल्कि उस क्षेत्र में सक्रिय आंगनबाड़ी केंद्र, आशा कार्यकर्ता, स्वास्थ्य कर्मी की वास्तविक स्थिति, इस रोग से बचाव के लिए किये जाने वाले उनके प्रयासों की सही स्थिति समझ में आये. साथ ही यह भी मालूम हो सके कि अस्पताल में उनका इलाज कैसे हुआ और इस दौरान परिवहन सुविधा की क्या स्थिति थी. तैयार प्रश्नावली को गूगल डॉक पर ऑनलाइन रखा गया और दो-दो युवाओं की टीम बनी. एक टीम प्रश्न पूछकर फॉर्म में आनलाइन आंकड़े फीड करती थी, दूसरी इस बातचीत का वीडियो तैयार करती थी.

11 जुलाई से सर्वेक्षण शुरू हुआ और यह सर्वेक्षण 19 जुलाई तक चला. तेज बारिश और कई इलाकों में आयी भीषण बाढ़ की वजह से सर्वेक्षण को बीच में रोकना पड़ा, मगर तब तक 227 परिवारों तक यह युवा टीम पहुंच चुकी थी. इनमें से 69 परिवार ऐसे थे, जिनके बच्चों की इस रोग के कारण मृत्यु हो गयी थी.

2019 में चमकी बुखार की मौतों ने हर चेतनशील नागरिक को, हम सब को किस कदर परेशान किया था, यह आप और हम आज तक नहीं भूले हैं. हम यह चाहते हैं कि अब किसी बच्चे की इस तरह मौत न हो, इस शर्मिंद्गी भरी त्रासदी से हमारा, बिहार का पीछा छूटे.

इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए यह सर्वेक्षण कई अहम सुझाव भी सामने रखती है. इस बिमारी से सफलतापूर्वक लड़ने के लिए विशेषज्ञ बच्चों का पोषण सुनिश्चित करने की पुख्ता योजना चलाने पर ज़ोर देते हैं. इसी बात को आगे बढ़ाते हुए यह रिपोर्ट जनवितरण प्रणाली को दुरुस्त करने, आंगनबाड़ी कार्यक्रम को और प्रभावी बनाने पर जोर देती है. रिपोर्ट कहती है कि सभी बच्चों को स्कूलों और मध्याह्न भोजन जैसी सरकारी योजनाओं से जोड़ने से इस बीमारी और इसके बुरे प्रभावों को काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है. रिपोर्ट के मुताबिक आंगनबाड़ी और सभी सरकारी व गैरसरकारी स्कूलों में किचेन गार्डन के द्वारा सब्जियाँ उगाने के कार्यक्रम को प्रभावी बनाकर भी कुपोषण और बीमारी से जुड़ी समस्याओं को काफी हद तक कम किया जा सकता है.

इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती है कि चमकी बुखार से लड़ने के लिए स्वास्थ्य सुविधाओं का पूरी तरह चाक-चौबंद होना जरुरी है. यह रिपोर्ट ऐसे में जिला स्तर के अस्पतालों के साथ-साथ पंचायत स्तरीय स्वास्थ्य केंद्र और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को और सुदृढ़ बनाने पर ज्यादा जोर देती है.

वंचित तबकों में इस बीमारी के प्रति जागरूकता की कमी एक बड़ी समस्या के रूप में उभर कर सामने आई है. ऐसे में यह रिपोर्ट सुझाव देती है कि स्थानीय चिकित्सकों (जिनमें ग्रामीण डॉक्टरों यानी की क्वेक्स को भी शामिल किया जाना चाहिए), आशा कार्यकर्ताओं, स्थानीय एनजीओ और जीविका एवं पंचायती राज संस्थानों के बीच प्रभावी ढंग से जागरूकता अभियान चलाकर, उन्हें प्रशिक्षित कर और उनके बीच तालमेल स्थापित करके इस बीमारी के असर को कम किया जा सकता है.

यह रिपोर्ट इस समस्या के एक कम चर्चित लेकिन बहुत अहम प्रभाव के सम्बन्ध में भी हमारा ध्यान खींचती है. इस बीमारी से प्रभावित बच्चों के एक बड़े हिस्से में कई तरह की मनोवैज्ञानिक और शारीरिक समस्याएं देखने को मिली हैं. जिनकी वजह से उनका समुचित शारीरिक, शैक्षणिक और बौद्धिक विकास अवरुद्ध होता है. रिपोर्ट के मुताबिक़ ऐसी तमाम समस्याओं का वैज्ञानिक अध्ययन कराया जाना चाहिए. ऐसी समस्याओं से प्रभावित बच्चों की पहचान किया जाना बेहद ज़रूरी है और उनके लिए रिहैबिलिटेशन कार्यक्रम चलाए जाने की ज़रूरत है. रिपोर्ट कहती है कि अगर मौजूदा चिकित्सकीय व्यवस्था और सरकारी कार्यक्रमों में ऐसे बच्चों के समुचित रिहैबिलिटेशन की गुंजाइश न हो तो सरकार द्वारा अलग से विशेष रिहैबिलिटेशन पैकेज तैयार करना और उसे प्रभावी ढंग से लागू किया जाना चाहिए एवं सरकारी और गैर सरकारी डॉक्टरों के लिए विशेष प्रशिक्षण की व्यवस्था कराई जाए.

और सबसे जरुरी बात जो रिपोर्ट सुझाती है कि हर साल फरवरी महीने से इस बीमारी की रोकथाम के लिए विशेष अभियान चलाया जाना चाहिए जिसमें सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों/संस्थानों, जीविका, पंचायतीराज संस्थान और आशा कार्यकर्ताओं की भूमिका सुनिश्चित की जाए.

इस साल से पहले बिहार ने बीते कुछ सालों में एईएस के मामलों और इससे होने वाली मौतों को उल्लेखनीय रूप से कम करने में सफलता पाई थी. 2014 में बिहार में इस बिमारी से जहां 379 बच्चे मारे गए थे वहीं 2016 में यह घटकर 103 पर पहुंच गया. ऐसा एक स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर (मानक संचालन कार्यक्रम) यानी की एसओपी तैयार और उसे ज़मीन पर उतार कर किया गया था.

वक़्त की मांग है कि बिहार को, बिहारी समाज को और सबसे ज्यादा जरुरी है कि बिहार सरकार को अपने वर्तमान यानी की अपने बच्चों को बचाने के लिए युवा समूह के इन सुझावों को अपने एसओपी में शामिल कर आज से ही काम शुरु कर देना चाहिए.


पूरा सर्वे यहाँ पढ़े: AES Survey Report 2019

Do you like the article? Or have an interesting story to share? Please write to us at info@patnabeats.com, or connect with us on Instagram and Twitter.

Quote of the day:“Our existence in this world is to make sure that we help as many people with whatever we can.” 
 Syed Ashar Ali

Comments


patna_beats_white.png

Quick Links

Newsletter

Patna Beats is an online media company headquartered at Patna.

At Patna Beats, we encourage people to take steps in eliminating stereotype and publish stories on those, who work towards the greater good.

Subscribe to get exclusive updates

Thanks for subscribing!

Address

Patna Beats,
Work Studio Co-Working A/3, P.C Colony Rd,
P.C Colony, Kankarbagh,
Patna - 800020, Bihar

 +91 8294 702 702

📧 connect@patnabeats.com

© 2023  by PatnaBeats

Designed & Developed by DMACHS Technologies

bottom of page